Sunday 27 November 2011

मिली भाव को अभिव्यक्ति ...

बस सो़चते गए और
हर हाल बयां हो गया....
छोटी सी इस कलम से
अहसास बयां हो गया....
अब तक दफ़न था दिल में
दिल की  ही बात मेरी ,
ये नोंक फिसलती गई ...
और शब्द में ढलती गई ...
होंठों से जो भी शब्द ,
नहीं जन्म ले सके कभी
उनको नया जनम मिला ..
मेरी भावना को अभिव्यक्ति मिली...

बचपन की यादें .......

जाने क्योँ
फिर-फिर आती हैं 
मीठी यादें बचपन की .....
जिसे छो़ड़  मैं 
आगे बढ़ गई...
बस यादें हैं 
बचपन की .....
खुले कंठ से 
हँसी-ठिठोली,
खेल खिलौने 
बचपन की .......
वो सच्चापन ,
वो निर्दोशमिजाज़,
मेरे उस बचपन की...
जाने कब मैं,
आगे बढ़ गई.....
बस यादें हैं
बचपन की.....
ना बीते का संशय था,
ना चिंता थी आगे की.... 
वर्तमान को 
जीती थी में ,
खुशियाँ कितनी
बचपन की......
अम्मा कि गोदी में
जाने कब थक कर
सो जाती थी,
और कब अपनी ही
सपनीली सपनों में 
खो जाती थी.....
बड़े अनोखे
सपनों जैसा ,
जीवन अपना 
चलता था
फिर जाने कब 
आगे बढ़ गई,
बस यादें हैं
बचपन की.....
बचपन छूटा,
सपना टूटा...
यादें ही अब 
बांकी हैं,
जाने क्यूं
अब भी आती हैं,
मीठी यादें
बचपन की.....

Thursday 24 November 2011

अश्रु दोषी नहिं ...

अश्रु केर दोष कोन
छलकि-छलकि जायत छैथ....

भावनाक उन्मादे
बहकि-बहकि जैत छैथ ....

कमल पो़र नयनों केर
मोन पडे जे अतीत
सुखक-दुखक छेड़छाड़
ढलकि ढलकि जैत छैथ....

अश्रु केर दोष कोन
ढलकि ढलकि जैत छैथ ....

हृदय सखे मथनी ओ
जाहि बीच कयल कर्म
नीक -बेजै नापि-तोलि
माथि क बहराइत छैथ

ताहि बीच नयन नीर
बहकि -बहकि जैत छैथ  .....

अश्रु केर दोष कोन
छलकि -छलकि जैत छैथ ....

Thursday 6 October 2011

-लौ की दृढ़ता-

टिम टिम टिम टिम लौ दिए की,
हिलती डुलती जलती जाती.
चाहे तली अँधेरी कितनी,
पर फिर भी वो मुस्काती है,
टिम टिम कर जलती जाती है.

चाहे जग सुन्दर हो कितना,
पर अँधेरा छाया हो ये,
दीपक नहीं देख पाता है.

कितना ही कम तेल भले हो,
और चाहे हो छोटी बाती,
पर जब तक ताकत जीने की,
रौशनी अपनी बिखराता है.
टिम टिम कर जलता जाता है.

हवा के झोंके भले डराएँ,
लौ पर फूंके , मुँह चिढायें,
पर अपनी ताकत से दम भर,
हिलती डुलती मुस्काती है,
दिए की लौ जलती जाती है.

चाहे दुनियाँ परे खड़ी हो,
पर सुख बिखराने की खातिर,
लड़ जाओ तुम हर ताकत से,
दीप यही तो सिखलाता है.
टिम टिम कर जलता जाता है .

Saturday 1 October 2011

वो बचपन का मीत ...


नभ में खिलता चाँद मुझे ही
देख देख मुस्काता है
बचपन कि यारी है हमारी
रोज शाम को आता है.

कितनी खुशियाँ मिल जाती हैं
चंदा कि किरणों से मुझको
तन मन कि हर इक थकान से
मिलती कितनी राहत मुझको

मैं उसको ही देखा करती
वो मुझको ही तकता है
बचपन कि यारी है हमारी
रोज शाम को आता है.

करता है मुझसे ही ठिठोली
कभी कभी छिप जाता है
उस से भी तो रहा न जाता
फिर नभ में आ जाता है

ऐ मेरे बचपन के साथी
ऐ छुटपन के मीत मेरे
साथ साथ ही चलते रहना
यूँ ही हर पल संग मेरे

मेरी राहें रौशन  करना
यूँ ही अंधियारी रातों में
और फिर मुझको ढूंढा करना
यूँ ही जीवन की  राहों में .

आबैत रहब स्वप्न .........

स्वप्निल एही आँखिक संगी
हे सपना एहिना सजैत  रहब
वर्तमान हो चाहे किछु औ
एहिना कल्पित खुशियाँ बनि-बनि
संग संग हमरे रहब
जगमगाए एहिना तन औ मन
किछु एहेन करिते रहब
स्याह रात्रि में रौशनी बनि बनि
स्वप्न दीप जरिते रहब
बनि जैब तखने उदय जखन
आशा केर सूरज उतरैत होथि
सजि जैब एहिना जेन कि
चहुँओर कचनार कियो बिखेरने होथि
हर आश हमर अहिं सं पुरत
जीवन ठीक ई पाथर के डगर
थकि क पुनि हम संभलव तखने
यदि अपने नयन में सजल रहब . 

सवालिया आँखें ....

इन्द्रधनुष सी वक्र
बड़ी-बड़ी पलकों के बीच से
निहारती
तुम्हारी आँखें.....
न जाने कौन सा सवाल
छिपा है
भीतर इनके.......
हर समय
प्रश्नवाचक भाव लिए
उठती हैं
तुम्हारी आँखें.......
प्रश्नों के सांचे में
ढलने दो
हर एक सवाल ......
तभी तो
उत्तर पा सकेंगी
तुम्हारी आँखें .......

ऐ गुलाब ....

ऐ गुलाब शोणितमय रक्तिम
काँटों में भी खिला है कैसे.
तेरी माँ है पौध तुम्हारी,
भाई बहन तुम्हारे काँटे,
                इन अपनों संग रहती कैसे,
                कंटक संग मुस्काती कैसे,
                मन पर अपने रख कर पत्थर,
                जन मन ह्रदय खिलाती कैसे,
अपनों का बेगानापन
तुमने तो हर पल देखा है,
ऐ गुलाब मुझको भी सिखा दे
अपनों के जख्म भुलाते कैसे .

केक्टस के फूल

अपने मिलते रहते हैं
कदम कदम पर
अपनापन मिलता है
हज़ारों में
कभी एक बार.
दिल पे ठोकरें खाने की ,
आदत ही बन गई है हमारी .
कड़वे ग़मों के घूंटों में भी
मीठी लगती है कोई घूँट
अनेकों में
कभी एक बार .
दुनियाँ में दोस्ती,
फरेब है और कुछ नहीं.
बस दोस्ती की ही तरह
केक्टस में खिला फूल
देखा है मैंने
देखा है
बस एक बार.

Monday 26 September 2011

साँझ-रात

ढलता साँझ .
दिन को अपने मैले आँचल में
समेटता बादल .......
दिन भर की थकान ..
संग में चुग्गा -दाना.
बच्चे का भोजन लेकर
घर की ओर
उड़ान भरता जोड़ा .
अँधेरे की लहराती साड़ी..
आँचल में जड़े हैं सितारे .
फिर बीता कुछ समय.
निखर कर आँचल से झाँका
चंदा का ...
वह चंदा सा मुखड़ा.
अहा !
बीत जायेगी रात यूँही
इस मुखड़े को तकते -तकते
अँधेरे की यह चादर
सच,
छोटी है इस
नयन तृप्ति के आगे .

माँ

माँ
तू सरिता है करुणा दया की
तू आकाश है स्नेह की

गंगा जमुना सा पावन मन लिए
तू समंदर है ममता की

थके क़दमों का सहारा है तू
मेरी बहती जिंदगी का किनारा है तू

गम के थपेड़ों में
बहकते  क़दमों को सम्हालने वाली
मजबूत आँचल का किनारा है तू

आवारा बादल सा घूमता
थिरकता, नाचता, झूमता
निर्बाध  "ख " सा मन मेरा

इस बेलगाम मन की
खूबसूरत सी लगाम है तू

माँ सुंदरता की अनुपम
मिसाल है तू  

Monday 12 September 2011

ई की.... (क्लोमिंग रिसर्च क परिपेक्ष में विज्ञान), प्रकाशित "आँकुर" अप्रिल-सितम्बर२००७

विज्ञानक महिमा केर
पाबि क आशीष
बीज आई
अपने मूलक
गुलाम नहिं.

आशीष रहत जखन धरि
नव नव आविष्कारक
कियो नेन्ना किये पुनि
मै केर सम्मान करत
बाप केर  आदर देत
जनकक आभार मानत

आई सौंसे भेट रहल अछि
किराया केर जमीन
विज्ञानक छत्रछाया रहत तं
कतहु भेट जैत जीवन

स्वाइते
संस्कारगत आदर्शक
क्षीणता क
मार्ग बनि गेल
विज्ञान


Sunday 11 September 2011

नारी (मैथिली पत्रिका "कर्णामृत " अप्रैल -जून २०११ में प्रकाशित )

नारी शक्ति छथि
नारी ममता छथि
निष्प्राण शारीर केर
आत्मा  छथि

हम छी ,अहाँ छी
आई जगत में
से संभव केनिहार
नरिए छथि

नारी अथाह समुद्र छथि
तं
गगनहि जेकाँ
विशालो छथि

जं पुष्प सन कोमल
छथि  तं
पर्वत सन कठोर
आ साहसी सेहो छथि

प्रेम केर
अनंतता सं
करेज में समेटनिहार
नारी छथि

महिषासुर सन
असुर केर
संहार केनिहरि
सेहो नारी छथि

नारी सं
संसार अछि
नरिए सं
आकार अछि

अंक लगेनिहारि
नेह केनिहारि
कान पकरि क
नीक बेजाए सिखौनिहरि

सम्पूर्ण जीवन
पुरुषक अधीनता क वावजूद
पुरुष उत्पन्न क
नेहाल भेनिहारि नारी छथि

कतेको बंधन में सदैब
स्वछंद रहली
कतेको कष्ट में सदैव
हँसैत रहली

जिनका
कतेको उपमा में
बान्हल गेल
मुदा बेर-बेर
सदैब
अनुपमेय रहली
सैह नारी छथि. 

Friday 9 September 2011

सारा जहां हमारा हो ...

धरती से अम्बर तक फैला
 हो अपना घर बार
देख देख कर इतराएं हम
मुस्काएं हर बार .

हो खुशियाँ इतनी ऊँची की
नजर जहां तक पहुँच न पाए
दिल में हों अरमान भरे
और हर इक चाहत  मंजिल पाए.

नई सुबह की नई ठिठोली
खिली धुप भी हमें हँसाए
हमको हँसते देखे दुनियाँ
वो भी संग संग मुस्काए.

चाहत है सपनों में, सच में
बस इतनी ही बातें हों
दिन हो अपना, बस दिन ही क्यों
अपनी सारी रातें हों.

असां कुछ भी नहीं

इतना आसां नहीं होता
     बिपरीतताओं  के बीच,
     तूफानों के थापेडो में भी,
     साहस का दामन थामे रखना.


इतना असां नहीं होता
     अनजाने में अपने को खोकर ,
     बस संतोष रखकर ,
     भीड में अनजान हो जाना.

इतना असां नहीं होता
      दामन की खुशियों को  ,
      खोकर भी ,
      चेहरे की शिकन को छिपाना.

इतना असां नहीं होता
      शब्दों में पिरोकर ,
      भावनाओं का गुलिस्ता,
      किसी अपने को पहुंचना.

बादल और मैं

 ऐ बादल उड़ते रहना

खिलते रहना तू भी

मुझसा ही

जीवन का सत्य समझ

चलते रहने को

मुड जाएगा कर्म तेरा 

जो रुख होगा

 बहती बयार का.

मैं और तू 

रास्ते अलग

पर धुरी एक है 

वही चक्र तेरा मेरा भी 

अंतर है बस ,

 चलने भर का .