Sunday 12 September 2021

ठहरो

 

ठहरो

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कि चाहा है तुमने ,

तुम्हें गुनगुनाऊँ।

तुम्हारी ही बातें ,

तुम्हीं को सुनाऊँ।

कि बस वो ही,

जिससे,

तुम्हारे अधर पर

खुशी मुस्कुराए।

हृदय झूम जाए।

ये क्योंकर करूँ मैं

तुम्हारा यूँ वंदन।

क्यूँ ढूँढूँ मैं लय में 

तुम्हारा ही स्पंदन।

कि चाहो जो हरदम

तुम्हें ही निहारूँ

तुम्ही को मैं सोचूँ ।

तुम्हें गुनगुनाऊँ।

तो जीतो मेरा मन

करो कुछ जतन भी

न बस इस तरह तुम

तिमिर बन के घूमो

ये चाहत की किरणें

हैं अनमोल होती।

सभी को न मिलती

सभी को न मिलती।


लेखनी@ कंचन झा

मौलिक एवम सर्वाधिकार सुरक्षित।

Monday 18 January 2021

अनहद ई जाड़

 अनहद ई जाड़

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 हाड़- हाड़ कंपा देल

एहि बेर जाड़ भेल।

जाड़क प्रचंडता में

जान -माल काँपि गेल।


दू टा किछु देबै जखन

जठराग्नि पोषित हो।

ओहि अग्नि सौंसे ई

हाड़- मांस ताप सेकत।


चलु चलु  उठू आब

जुनि करू आसकैत।

उठबै त काज हेतै

तापक ओरियान हेतै।


सुरुजक उग्रास हेतैन

कुहेसक घेरा स।

उठि जेता जखने ओ

जन जन के प्राण भेटत।


लेखनी: कंचन झा

फोटो: गूगल सँ साभार