Thursday 6 October 2011

-लौ की दृढ़ता-

टिम टिम टिम टिम लौ दिए की,
हिलती डुलती जलती जाती.
चाहे तली अँधेरी कितनी,
पर फिर भी वो मुस्काती है,
टिम टिम कर जलती जाती है.

चाहे जग सुन्दर हो कितना,
पर अँधेरा छाया हो ये,
दीपक नहीं देख पाता है.

कितना ही कम तेल भले हो,
और चाहे हो छोटी बाती,
पर जब तक ताकत जीने की,
रौशनी अपनी बिखराता है.
टिम टिम कर जलता जाता है.

हवा के झोंके भले डराएँ,
लौ पर फूंके , मुँह चिढायें,
पर अपनी ताकत से दम भर,
हिलती डुलती मुस्काती है,
दिए की लौ जलती जाती है.

चाहे दुनियाँ परे खड़ी हो,
पर सुख बिखराने की खातिर,
लड़ जाओ तुम हर ताकत से,
दीप यही तो सिखलाता है.
टिम टिम कर जलता जाता है .

Saturday 1 October 2011

वो बचपन का मीत ...


नभ में खिलता चाँद मुझे ही
देख देख मुस्काता है
बचपन कि यारी है हमारी
रोज शाम को आता है.

कितनी खुशियाँ मिल जाती हैं
चंदा कि किरणों से मुझको
तन मन कि हर इक थकान से
मिलती कितनी राहत मुझको

मैं उसको ही देखा करती
वो मुझको ही तकता है
बचपन कि यारी है हमारी
रोज शाम को आता है.

करता है मुझसे ही ठिठोली
कभी कभी छिप जाता है
उस से भी तो रहा न जाता
फिर नभ में आ जाता है

ऐ मेरे बचपन के साथी
ऐ छुटपन के मीत मेरे
साथ साथ ही चलते रहना
यूँ ही हर पल संग मेरे

मेरी राहें रौशन  करना
यूँ ही अंधियारी रातों में
और फिर मुझको ढूंढा करना
यूँ ही जीवन की  राहों में .

आबैत रहब स्वप्न .........

स्वप्निल एही आँखिक संगी
हे सपना एहिना सजैत  रहब
वर्तमान हो चाहे किछु औ
एहिना कल्पित खुशियाँ बनि-बनि
संग संग हमरे रहब
जगमगाए एहिना तन औ मन
किछु एहेन करिते रहब
स्याह रात्रि में रौशनी बनि बनि
स्वप्न दीप जरिते रहब
बनि जैब तखने उदय जखन
आशा केर सूरज उतरैत होथि
सजि जैब एहिना जेन कि
चहुँओर कचनार कियो बिखेरने होथि
हर आश हमर अहिं सं पुरत
जीवन ठीक ई पाथर के डगर
थकि क पुनि हम संभलव तखने
यदि अपने नयन में सजल रहब . 

सवालिया आँखें ....

इन्द्रधनुष सी वक्र
बड़ी-बड़ी पलकों के बीच से
निहारती
तुम्हारी आँखें.....
न जाने कौन सा सवाल
छिपा है
भीतर इनके.......
हर समय
प्रश्नवाचक भाव लिए
उठती हैं
तुम्हारी आँखें.......
प्रश्नों के सांचे में
ढलने दो
हर एक सवाल ......
तभी तो
उत्तर पा सकेंगी
तुम्हारी आँखें .......

ऐ गुलाब ....

ऐ गुलाब शोणितमय रक्तिम
काँटों में भी खिला है कैसे.
तेरी माँ है पौध तुम्हारी,
भाई बहन तुम्हारे काँटे,
                इन अपनों संग रहती कैसे,
                कंटक संग मुस्काती कैसे,
                मन पर अपने रख कर पत्थर,
                जन मन ह्रदय खिलाती कैसे,
अपनों का बेगानापन
तुमने तो हर पल देखा है,
ऐ गुलाब मुझको भी सिखा दे
अपनों के जख्म भुलाते कैसे .

केक्टस के फूल

अपने मिलते रहते हैं
कदम कदम पर
अपनापन मिलता है
हज़ारों में
कभी एक बार.
दिल पे ठोकरें खाने की ,
आदत ही बन गई है हमारी .
कड़वे ग़मों के घूंटों में भी
मीठी लगती है कोई घूँट
अनेकों में
कभी एक बार .
दुनियाँ में दोस्ती,
फरेब है और कुछ नहीं.
बस दोस्ती की ही तरह
केक्टस में खिला फूल
देखा है मैंने
देखा है
बस एक बार.