Saturday 21 March 2020


स्त्री


स्त्री ,
जे धुरी होइत छथि
प्रत्येक घर के
जिनकर चारु कात
सुख-दुःख घुमैत रहैत छनि .
जिनकर जगनाई
जेना निष्प्राण शरीर में
श्वास केर प्रवेश भेनाई .
जेना,
भेट गेल हुए सब के
अपन अपन आजुक उद्देश्य.
जखन धरि घर में छथि
घर, घर रहैए.
आ,
जखन अपन कार्यस्थली
कतौ बाहर भ जाइन,
त ओतहुका रौनक
बनि जाइत छथि.
स्त्री कखनो सीता छथि
त, कखनो राधिक.
कखनो साक्षात् शक्ति
त कखनो माँ शारदा
हर रूप में जगत केर जीवनी बनि
अपन नेह सं सिंचित करैत छथि

अमूल्य मातृत्व निछावर करैत
सम्पूर्ण परिस्थिति केर
करेज में साईट
जखन ओ शक्ति  रूपेण
संग होइत छथि
तखन कोनों झंझावातक
स्पर्शो मात्र संभव नहिं.

लेखनी : कंचन झा
@सर्वाधिकार सुरक्षित  


अपनी ऊर्जा बिखराओ


अपनी ऊर्जा बिखराओ


क्यूं चाहिए सोने चांदी
अपना ओज बढ़ाने को
मत ढांको तुम अपनी उर्जा
उसे छटा बिखरने दो

निज प्रकाश से अपना मुखडा
सूरज सा दमकेगा साथी
 नहीं चमकना शशि की भांति
भाड़े की रौनक ले लेकर.

आओ खुद में खुद  को ढूँढें
जो प्रकाश अंदर बिखरा है
ढांक रखा चादर से जिसको
उस आभा को छितराने दो

नहीं चाहिए सोने चांदी
अपना ओज बढ़ाने को
मत ढांको तुम अपनी उर्जा
उसे छटा बिखराने दो

लेखनी : कंचन झा
@सर्वाधिकार सुरक्षित

कहाँ जाता है आदमी



कहाँ जाता है आदमी

भोर की भागमभाग में
दिन की आपाधापी में
खुद की ही बस ताक में
                               खो जाता है आदमी

धुंधलाती रौशनी
जो और मद्धम हो रही है
दिन भर की थकान बटोरे
लौट आता है आदमी

चूर होकर देह उसकी
टूटती है पोर पोर
फिर समय पर जग जाने को
सो जाता है आदमी

पर कहाँ सो पाती है
बेचैनी उसके मन की
खुद की ही बटोरी समस्याओं के
मकड़जाल में फँसा हुआ
उम्र भर छटपटाता है आदमी

हर एक दिन उम्र का
 जो गिना हुआ है उंगलिओं पर
अनुकूल बनानें को उसे
खुद से ही  प्रतिकूल
हुआ जाता है आदमी
.
 लेखनी : कंचन झा
@ सर्वाधिकार सुरक्षित