कहाँ
जाता है आदमी
भोर की भागमभाग में
दिन की आपाधापी में
खुद की ही बस ताक में
खो जाता है आदमी
धुंधलाती रौशनी
जो और मद्धम हो रही है
दिन भर की थकान बटोरे
लौट आता है आदमी
चूर होकर देह उसकी
टूटती है पोर –पोर
फिर समय पर जग जाने को
सो जाता है आदमी
पर कहाँ सो पाती है
बेचैनी उसके मन की
खुद की ही बटोरी समस्याओं के
मकड़जाल में फँसा हुआ
उम्र भर छटपटाता है आदमी
हर एक दिन उम्र का
जो गिना हुआ है उंगलिओं पर
अनुकूल बनानें को उसे
खुद से ही प्रतिकूल
हुआ जाता है आदमी
.
लेखनी : कंचन झा
@ सर्वाधिकार सुरक्षित

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