Saturday 21 March 2020

कहाँ जाता है आदमी



कहाँ जाता है आदमी

भोर की भागमभाग में
दिन की आपाधापी में
खुद की ही बस ताक में
                               खो जाता है आदमी

धुंधलाती रौशनी
जो और मद्धम हो रही है
दिन भर की थकान बटोरे
लौट आता है आदमी

चूर होकर देह उसकी
टूटती है पोर पोर
फिर समय पर जग जाने को
सो जाता है आदमी

पर कहाँ सो पाती है
बेचैनी उसके मन की
खुद की ही बटोरी समस्याओं के
मकड़जाल में फँसा हुआ
उम्र भर छटपटाता है आदमी

हर एक दिन उम्र का
 जो गिना हुआ है उंगलिओं पर
अनुकूल बनानें को उसे
खुद से ही  प्रतिकूल
हुआ जाता है आदमी
.
 लेखनी : कंचन झा
@ सर्वाधिकार सुरक्षित

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