ऐ गुलाब शोणितमय रक्तिम
काँटों में भी खिला है कैसे.
तेरी माँ है पौध तुम्हारी,
भाई बहन तुम्हारे काँटे,
इन अपनों संग रहती कैसे,
कंटक संग मुस्काती कैसे,
मन पर अपने रख कर पत्थर,
जन मन ह्रदय खिलाती कैसे,
अपनों का बेगानापन
तुमने तो हर पल देखा है,
ऐ गुलाब मुझको भी सिखा दे
अपनों के जख्म भुलाते कैसे .
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