ठहरो
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कि चाहा है तुमने ,
तुम्हें गुनगुनाऊँ।
तुम्हारी ही बातें ,
तुम्हीं को सुनाऊँ।
कि बस वो ही,
जिससे,
तुम्हारे अधर पर
खुशी मुस्कुराए।
हृदय झूम जाए।
ये क्योंकर करूँ मैं
तुम्हारा यूँ वंदन।
क्यूँ ढूँढूँ मैं लय में
तुम्हारा ही स्पंदन।
कि चाहो जो हरदम
तुम्हें ही निहारूँ
तुम्ही को मैं सोचूँ ।
तुम्हें गुनगुनाऊँ।
तो जीतो मेरा मन
करो कुछ जतन भी
न बस इस तरह तुम
तिमिर बन के घूमो
ये चाहत की किरणें
हैं अनमोल होती।
सभी को न मिलती
सभी को न मिलती।
लेखनी@ कंचन झा